amurya rajya and saptnag sidhant in ancient india upsc gs in hindi best website for gk gs

कौटिल्य के सप्तांग राज्य की अवधारणा

प्राचीन भारतीय राजनीति शास्त्र में राज्य को उपमा के तौर पर एक ऐसा प्राणी या शरीर मानने की परंपरा रही है जिसके अंग या प्रकृति होती हैं। अतः प्राचीन भारतीय राज्य शासन ने राज्य को सप्त-राज्य प्रकृति अथवा सप्तांग राज्य कहा है। कौटिल्य ने भी सर्वसम्मत अनुसरण करते हुए राज्य के अग्र लिखित सात अंग अथवा प्रकृति को स्वीकारा है।

Read this article in English

सप्तांग राज्य में सात अंग कौनसे है ?

राज्य के सात अंग निम्न है :

  • स्वामी,
  • अमात्य,
  • जनपद,
  • दुर्ग,
  • कोश,
  • दंड
  • मित्र

कौटिल्य के सप्तांग राज्य सिद्धांत का सरल व संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है:

1. स्वामी

राजा को स्वामी कहा गया है। राज्य के सात अंगों में क्रम की दृष्टि से स्वामी का स्थान प्रथम है। वह दंड दे सकता है और महत्व की दृष्टि से संपूर्ण राज्य व्यवस्था में उसका केंद्रीय स्थान है। कौटिल्य का मत है कि राज्य की अन्य प्रकृति या अंग स्वामी के ही गुणों या अवगुणों का अनुकरण करती हैं। इस प्रकार स्वामी ही राज्य के उत्थान एवं पतन की दृष्टि से मुख्य रूप से उत्तरदायी होता है।

सप्तांग राज्य में स्वामी के चार गुण

कौटिल्य के अनुसार स्वामी को अभिगामिक, प्रज्ञा, उत्साह तथा आत्मसम्मान नामक चार गुणों वाला होना चाहिए। इन गुणों की दृष्टि से स्वामी की उचित शिक्षा एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था का भी उल्लेख अर्थशास्त्र में किया है।

2.अमात्य

राज्य का दूसरा महत्वपूर्ण अंग अमात्य हैं जिसे सामान्य अर्थ में मंत्री मान सकते हैं। लेकिन कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में अमात्य का प्रयोग उच्च प्रशासनिक अधिकारी और मंत्री दोनों के ही अर्थों में किया है। अतः अमात्य मुख्य रूप से उच्च पदाधिकारी है।

कौटिल्य ने अमात्यो के महत्व को बताते हुए उसे राज्य रूपी गाड़ी का दूसरा पहिया कहा है और बताया है कि जैसे कोई गाड़ी दोनों पहियों के आपसी सहयोग के बिना नहीं चल सकती ठीक वैसे ही राज्य के संचालन में राजा और अमात्य के बीच सहयोग जरूरी होता है। अतः राजा को अत्यंत योग्य अमात्य की नियुक्ति करनी चाहिए और उसके परामर्श से शासन करना चाहिए।

लेकिन कौटिल्य ने अमात्यो की कोई निश्चित संख्या नहीं बताई है। अपितु राजा को परामर्श दिया है कि वह राजकीय कार्यों की मात्रा को ध्यान में रखते हुए अमात्यो की पर्याप्त संख्या में नियुक्ति करें।

3. जनपद

कौटिल्य ने राष्ट्र के लिए जनपद शब्द का प्रयोग किया है। यह सप्तांग राज्य का तीसरा अनिवार्य अंग या प्रकृति है।

जनपद में भू प्रदेश और जनसंख्या दोनों ही तत्व एक साथ पाए जाते हैं। इस प्रकार जनपद का सरल अर्थ जनयुक्त भूमि है। कौटिल्य के अनुसार “मनुष्य से रहित भू प्रदेश जनपद नहीं होता है और जनपद से रहित राज्य नहीं हो सकता है”

छठी ईसापूर्व 16 महाजनपदों की अवस्थिति , कौटिल्य के सप्तांग राज्य की अवधारणा, saptang rajya sidhant
छठी ईसापूर्व 16 महाजनपदों की अवस्थिति

राज्य के लिए कृषक, व्यापारी, श्रमिक, सैनिक एवं राजस्व की प्राप्ति जनपद से ही होती है। अतः राज्य के निर्माण एवं संचालन में जनपद का विशेष महत्व होता है। कौटिल्य ने नए जनपद की स्थापना के बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनका मत है कि अन्य राज्यों की जनसंख्या को बुलाकर अथवा अपने राज्य की जनसंख्या की वृद्धि करके नया जनपद बसाना चाहिए।

उन्होंने जनपद के निर्माण में कृषि, खान, पशु, जलवायु आदि विभिन्न तत्वों की भूमिका बताई है। उल्लेखनीय है कि कौटिल्य ने राज्य की एक प्रादेशिक या भौगोलिक इकाई के रूप में भी जनपद का उल्लेख किया है। इस विशिष्ट अर्थ में जनपद को आधुनिक जिला जैसी प्रशासनिक इकाई माना जा सकता है।

4. दुर्ग

राज्य का चौथा प्रमुख अंग या प्रकृति दुर्ग है। कौटिल्य ने दुर्गों के निर्माण तथा दुर्ग की सीमा के अंदर बनाए जाने योग्य राजभवन और नगर के प्रमुख स्थानों के निर्माण पर विस्तार से विचार किया है। शत्रु आक्रमणकारियों से राज्य की रक्षा में दुर्ग का विशेष महत्व होता है किंतु वास्तव में दुर्ग ऐसा स्थान भी है जहां राजा शत्रु पर आक्रमण करने से पहले अपने आक्रमणकारी सैन्य शक्ति का भली-भांति संचय करने में समर्थ होता है।

इस प्रकार दुर्ग का प्रत्यक्ष रुप से सुरक्षात्मक और अप्रत्यक्ष रूप से आक्रमणकारी दोनों ही महत्व होते हैं। कौटिल्य के अनुसार राजा को अपनी राजधानी नगर के साथ ही जनपद की विभिन्न दिशाओं तथा जनपद के मध्य के प्रमुख स्थानों पर दुर्गों का निर्माण कराना चाहिए। इन दुर्गो को सेना, भोजन, नमक पानी, शस्त्र आदि की दृष्टि से आत्मनिर्भर होना चाहिए।

अर्थशास्त्र में चार प्रकार के दुर्ग

अर्थशास्त्र में लिखित चार प्रकार के दुर्गों का उल्लेख किया गया है: औदक दुर्ग, पार्वत दुर्ग, धान्वन दुर्ग, वन दुर्ग। कौटिल्य के अनुसार औदक और धान्वन दुर्ग शत्रु के प्रथम आक्रमण के समय राजा एवं प्रजाजन दोनों की ही रक्षा में सहायक होते हैं। जबकि धान्वन दुर्ग और वन दुर्ग शत्रु से हारे राजा के छुपने के लिए उपयुक्त स्थान होते हैं और उसकी रक्षा में मददगार होते हैं।

5. कोष

कौटिल्य प्राचीन भारत के राजनीति और अर्थशास्त्री संप्रदाय के प्रमुख आचार्य हैं। उन्होंने राज्य संचालन में कोष की विशेष भूमिका को स्वीकार है। कौटिल्य के अनुसार राज्य के संपूर्ण कार्यों का आधार कोष होता है अतः राजा को चाहिए कि वह सर्वप्रथम कोष के विषय में विचार करें।

उन्होंने कोष के गुणों की मात्रा, विस्तार, सामर्थ्य आदि को प्रकट करते हुए कहा है कि राजकोष ऐसा होना चाहिए जिसमें पूर्वज राजा तथा स्वयं धर्म पूर्वक (नियम पूर्वक) की गई आय संचित हो। उसे स्वर्ण, चांदी, विभिन्न प्रकार के बहुमूल्य रत्नों से इतना संपन्न होना चाहिए कि लंबे समय तक चलने वाले विपत्ति जैसे अकाल या आक्रमण से राजा एवं प्रजा की रक्षा हो सकें।

लेकिन कोष में संचय धर्म पूर्वक किया जाना चाहिए अर्थात इस संबंध में प्रजा को पीड़ित नहीं किया जाना चाहिए। कोषकार्य पर योग्य तथा विश्वासपात्रो को ही नियुक्त किया जाना चाहिए। कोषाध्यक्ष पद पर नियुक्त व्यक्ति ऐसा होना चाहिए जो राजा द्वारा कोष संबंधी जानकारी मांगे जाने पर तुरंत ही राजा को कोष की स्थिति के बारे में बता दे।

6. दंड

सप्तांग राज्य का छठा अनिवार्य अंग दंड है। जिसका सामान्य अर्थ सैन्य बल से हैं। सेना राज्य की रक्षा तथा विस्तार की दृष्टि से राज्य का एक अति महत्वपूर्ण अंग है। कौटिल्य ने सेना का महत्व बताते हुए कहा है कि जिस राजा के पास शक्तिशाली सेना होती है उस राजा के मित्र तो मित्र ही बने रहते हैं और शत्रु भी मित्र बन जाते हैं।

कौटिल्य ने श्रेष्ठ प्रकार के सैन्य बल के निर्माण पर जोर दिया है। सेना में सभी वर्णों के योग्य साहसी पुरुषों को भर्ती किया जाना चाहिए। लेकिन सेना में ब्राह्मण वर्ण को शामिल करने में कौटिल्य संकोच करते है।

7. मित्र

कौटिल्य ने राज्य के सातवें अनिवार्य अंग के रूप में मित्र यानी मित्र राजा या मित्र राज्य को मान्यता दी है। वस्तुतः मित्र किसी एक ऐसे राज्य का राजा होता है जिसके साथ राज्य के मित्रता पूर्ण संबंध होते हैं। शांति काल में अपने राज्य की प्रगति के लिए तथा आपत्ति काल में राज्य की रक्षा के लिए मित्र बल का विशेष महत्व होता है।

मित्र बल की मदद से राजा अपने राज्य का विस्तार करने में भी सफलता प्राप्त करता है। कौटिल्य ने राजा को सदैव मित्र संग्रह के लिए प्रयत्नशील रहने का परामर्श दिया है। उन्होंने मित्र के गुण को प्रकट किया है कि मित्र ऐसा होना चाहिए जो स्थाई हो, अपने वश में रहने वाला हो, जिन से विरोध की संभावना नहीं है, आपत्ति काल आने पर तत्काल मदद करने के लिए तैयार हो, मित्रों में उक्त गुणों का होना मित्र संपन्न कहा जाता है।

Read this article in English

यह आर्टिकल आधिकारिक स्त्रोत जैसे प्रमाणित पुस्तके, विशेषज्ञ नोट्स आदि से बनाया गया है। निश्चित रूप से यह सिविल सेवा परीक्षाओ और अन्य परीक्षाओ के लिए उपयोगी है।

Share and follow

अगर यह आर्टिकल आपको उपयोगी लगा तो इसे शेयर करना न भूले और नीचे दिए लिंक पर फॉलो भी करे

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *