“अभिलेखों की लिपि का विकास एक प्राचीन और समृद्ध परंपरा है, जिसमें समय के साथ निरंतरता और गहराई देखी जाती है। इस लेख में हमने इसे सरल और संक्षिप्त तरीके से प्रस्तुत किया है। यदि आप इस विषय पर अपनी समझ को परखना चाहते हैं, तो फ्री टेस्ट देने के लिए यहाँ क्लिक करें।“
- राजस्थान में अभिलेख उत्कीर्णन की परंपरा अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है।
- कालीबंगा से प्राप्त हड़प्पाकालीन मुद्राएँ इस परंपरा की प्राचीनता का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। हालांकि, इन मुद्रा-लेखों को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
- मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल में ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण बैराठ और भानु अभिलेख राजस्थान में उपलब्ध होते हैं।
- बड़ली, नगरी, घोसुंडी, नांदसा, बड़वा, और बर्नाला जैसे स्थलों से प्राप्त अभिलेखों में मौर्यकालीन तथा मौर्योत्तर ब्राह्मी लिपि का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है।
- गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि में लिखे गए प्रमुख अभिलेख:
- छोटी सादड़ी का भ्रमर माता अभिलेख (वि.स. 547)
- गंगधार अभिलेख
- विजयगढ़ अभिलेख
- इसी काल में ब्राह्मी लिपि का एक अलंकृत रूप ‘कुटिललिपि’ के रूप में विकसित हुआ।
- कुटिललिपि का प्रयोग:
- कुंडा अभिलेख (वि.सं. 718)
- कल्याणपुर अभिलेख (7वीं-8वीं शताब्दी)
- राजौर अभिलेख (वि.सं. 1016)
- इस लिपि में अलंकरण की अधिकता के कारण सौंदर्य वृद्धि तो हुई, लेकिन अक्षरों की पहचान करना कठिन हो गया।
- कुटिललिपि के समानांतर हर्षकाल में नागरी लिपि का भी प्रचलन हुआ। द्वितीय नागभट्ट के बुचकला अभिलेख (वि.सं. 872) में इस लिपि का प्रयोग मिलता है। शनैः-शनैः यह लिपि विकसित होकर आधुनिक नागरी लिपि का रूप लेती गई, जिसका विशेष प्रचलन पूर्व मध्यकाल के बाद हुआ।
- पूर्वमध्यकालीन राजस्थानी अभिलेखों में मुख्यतः संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ।
- प्राचीन और प्रारंभिक मध्यकालीन युग के कुछ अभिलेखों में अर्द्धमागधी और प्राकृत भाषाओं का भी प्रयोग मिलता है:
- अशोक के बैराठ अभिलेख में मौर्यकालीन अर्द्धमागधी
- कक्कुक के घटियाला अभिलेख में गुप्तोत्तर प्राकृत भाषा
- राजस्थान के कुछ अभिलेखों में विशिष्ट शब्द मिलते हैं जो संस्कृत साहित्य में अन्यत्र नहीं पाए जाते:
- ‘शूलपाल’ (वेश्यालय या देवयात्रा के समय शस्त्र विशेष लेकर चलने वाला राजकीय कर्मचारी)
- ‘वडहर’ (स्थानीय शब्द ‘वडेरा’ का संस्कृत रूपांतर)
- इन अभिलेखों में प्रयुक्त संस्कृत भाषा पूर्णतः व्याकरण सम्मत नहीं है।
- आमतौर पर लेखक, प्रतिलिपिक, और उत्कीर्णक अलग-अलग व्यक्ति होते थे, जिसके कारण लेखन, प्रतिलिपि और उत्कीर्णन में भिन्नताएँ आ जाती थीं।